
पटना। रासायनिक खादों और अन्य कृषि रसायनों के बढ़ते उपयोग से मिट्टी की सेहत लगातार प्रभावित हो रही है। इसे ध्यान में रखते हुए बिहार सरकार का कृषि विभाग राज्यभर में मिट्टी की जांच कर उसकी गुणवत्ता सुधारने के लिए निरंतर प्रयास कर रहा है। इसी कड़ी में वित्तीय वर्ष 2025-26 में अब तक लगभग दो लाख मिट्टी नमूनों की जांच की जा चुकी है। मिट्टी जांच के आधार पर कृषि वैज्ञानिक किसानों को उनकी भूमि की स्थिति के अनुसार खाद डालने और उपयुक्त फसल लगाने की सलाह देते हैं। इससे खेती की लागत घटती है और उत्पादन में वृद्धि होती है।
किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराया गया
इस वर्ष कुल 2.53 लाख मिट्टी नमूने एकत्र किए गए हैं, जिनमें से 1.87 लाख नमूनों का विश्लेषण कर किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराया जा चुका है। राज्य में किसानों को तीन वर्ष के अंतराल पर मृदा स्वास्थ्य कार्ड दिए जाते हैं। पिछले वित्तीय वर्ष में 5 लाख से अधिक मिट्टी नमूनों की जांच पूरी की गई थी। मृदा स्वास्थ्य कार्ड के आधार पर किसान संतुलित उर्वरक का प्रयोग कर रहे हैं तथा स्थानीय कार्बनिक और जैव उर्वरकों को शामिल करते हुए समेकित उर्वरता प्रबंधन को बढ़ावा दे रहे हैं।
कृषि विभाग डिजिटल स्वायल फर्टिलिटी मैप तैयार करने की प्रक्रिया में भी है। इससे राज्य के सभी क्षेत्रों में एक समान तरीके से मिट्टी नमूना संग्रहण सुनिश्चित हो सकेगा। साथ ही किसानों की सुविधा के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड WhatsApp के माध्यम से भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उपलब्ध ऑनलाइन स्वायल हेल्थ कार्ड में लगभग 106 फसलों के लिए अनुशंसाएं दर्ज होती हैं।
अनुमंडल स्तर पर बन रही हैं 32 नई मिट्टी जांच प्रयोगशालाएं
किसानों को स्थानीय स्तर पर आसान मिट्टी जांच सुविधा उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय वर्ष 2025-26 में अनुमंडल स्तर पर 32 नई मिट्टी जांच प्रयोगशालाएं स्थापित की जा रही हैं। वर्तमान में राज्य में 38 जिला स्तरीय मिट्टी जांच प्रयोगशालाएं, 9 चलंत (मोबाइल) प्रयोगशालाएं और 14 अनुमंडल स्तरीय प्रयोगशालाएं कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त मिट्टी जांच की गुणवत्ता नियंत्रण हेतु 3 रेफरल प्रयोगशालाएं भी संचालित हो रही हैं।
किसान प्रायः नाइट्रोजन, यूरिया और फॉस्फोरस जैसे सीमित उर्वरक ही उपयोग करते हैं, जिससे मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी बढ़ रही है और उत्पादकता प्रभावित होती है। मिट्टी की जांच से अनावश्यक उर्वरक से बचाव होता है तथा आवश्यक पोषक तत्वों की कमी पूरी की जा सकती है। इससे लागत घटती है, उत्पादन बढ़ता है और पर्यावरण संरक्षण भी संभव होता है। — डॉ. अर्नब कुंदु, असिस्टेंट प्रोफेसर, राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा। |



