सारण के एक ऐसे युवा की कहानी, जो अबतक 1500 से अधिक शवों का कर चुका है अंतिम संस्कार

छपरा
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छपरा। अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए….। यह पंक्ति सारण के रविरंजन सिंह पर बिल्कुल सटीक बैठती है। 11 साल की अवस्था से अब तक सैकड़ों चिताएं जला चुके हैं। तब पिता के खर्च से गरीबों की चिताएं जलती थीं और अब स्वयं के पैसे से। यह नेक कार्य करने वाले रवि इसमें ऐसे तल्लीन रहते हैं, जैसे उनके अपने बिछड़ गये हों।
छपरा शहर के दहियावां टोला के रहने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता सुरेश सिंह के पुत्र रविरंजन कुमार सिंह को यह प्रेरणा अपने पिता से मिली। उनके पिता अब तक 2000 से अधिक चिताएं जला चुके हैं। सुरेश सिंह अपने पिता की मौत के बाद जब श्मशान पहुंचे और एक गरीब के पास अपने भाई की लाश जलाने के पैसे नहीं होने की पीड़ा देखी तो वहीं से ठान लिया कि इस काम में आगे बढ़ना है। सुरेश सिंह के पास जब भी किसी गरीब की चिता के बारे में सूचना मिली तो वे सीधे श्मशान पहुंचते थे। गरीब परिवार के लोगों से जितना पैसा मिला खर्च किया और शेष राशि सुरेश सिंह के सहयोग से खर्च होती रही।

गरीब ही नहीं परिवार विहीन लोगों के लिए भी आगे आये रविः
पिता सुरेश सिंह को बीमार होने की स्थिति में पाकर रवि 11 साल की अवस्था में ही इस काम में कूद पड़े। गरीब ही नहीं, परिवारविहीन लोगों का भी रवि ने साथ दिया। लगभग 27 साल में 1500 सौ चिताएं जला चुके हैं। उनके साथ चार-पांच वैसे मित्र भी हैं जो लावारिस लाशों को जलाने में सहयोग करते हैं पर गरीबों व परिवारविहीन मृतकों की चिताएं जलाने में रवि खुद खर्च करते हैं। वे पेशे से सीपीएस स्कूल में शिक्षक हैं। उनकी पत्नी समस्तीपुर में प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका हैं।

रवि बताते हैं कि शरीर के वजन के अनुसार चिता जलाने में 80 किलो से लेकर डेढ क्विटल तक लकड़ी लगती है। डोम से लेकर श्मशान तक में लगभग 20 से 30 हजार रुपये तक खर्च होते हैं। ऐसे में गरीब परिवार के पास चिता जलाने के वक्त आर्थिक संकट होता है। शमशान घाट पर मुखाग्नि देने वाले से लेकर लकड़ी बेचने वाले तक रवि से परिचित हैं। मोहल्ले के रहने वाले मिथिलेश सिंह बताते हैं कि अगर मोहल्ले में भी कोई परीब मर जाए तो वे वहां जरूर पहुंचते हैं। जरूरत के मुताबिक मदद करते हैं। लावारिस लाशों को कंधा देकर श्मशान तक लाते हैं।