

शेरघाटी: शेरों की धरती… शेरघाटी। इतिहास में जिसने कई योद्धाओं को जन्म दिया, आज वही धरती चुपचाप आंसू बहा रही है। गांवों की टूटी गलियां, बारिश में बहते रास्ते, स्कूल न जा पाने की मजबूरी, और अस्पताल में इलाज के अभाव में दम तोड़ती सांसें… यह सिर्फ दर्द की कहानी नहीं, यह हक की लड़ाई है।आज शेरघाटी की जरूरत है एक ऐसे नेतृत्व की, जो न केवल इन दर्दों को समझे बल्कि हर आंसू पोछने एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने का साहस भी रखे। एक ऐसा नेता, जो वादा नहीं, विश्वास करे। जो शेरघाटी की इज्जत को संजोए और भविष्य को रोशन करने का हौसला रखे।
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शेरघाटी को जिला का दर्जा दिलाने की मुहिम
शेरघाटी विधानसभा से इसी प्रगतिशील सोच के साथ सीताराम यादव एक सशक्त प्रत्याशी के रूप में उभरे है। जमीनी स्तर पर 25 सालों से अधिक का कार्य, लोगों से भावनात्मक जुड़ाव एवं विकट परिस्थितियों में आम लोगों की सेवा और आवाज बनने की आतुरता उन्हें अन्य प्रत्याशियों से अलग करता है।
गांव आज भी सड़क, पुल और बिजली के लिए तरस रहा
सीताराम यादव एक सुनहरे भविष्य की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि बरसों से शेरघाटी के लोग जिला बनने का सपना देख रहे हैं। हर चुनाव में वादे हुए, कागजों पर नक्शे बने, घोषणाओं में बड़े-बड़े शब्द बोले गए… लेकिन असल में गांव आज भी सड़क, पुल और बिजली के लिए तरस रहा है। जहां बच्चे स्कूल जाने के लिए नदी पार करने को मजबूर हैं, वहां शिक्षा केवल एक सपना बनकर रह जाती है।
इन बच्चों की मासूम आंखों में चमक है, पर रास्ता नहीं। इस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार ने विकास की गति को रोक दिया। बिना ईमानदारी के कोई भी योजना धरातल पर नहीं उतर सकती। सीताराम यादव का संकल्प है कि हर स्तर पर पारदर्शिता और जवाबदेही को प्राथमिकता देना।
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जिस शेरघाटी का नाम इतिहास में सूरज की तरह चमकता था, आज वहां इलाज के लिए लोग 30 किलोमीटर दूर गया भागते हैं। हर मिनट कीमती होता है, पर इलाज की यह जंग कई जिंदगियां निगल चुकी है। यहां एक ट्रॉमा सेंटर, ब्लड बैंक और आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी न जाने कितनी माताओं ने अपने बेटे खोए, न जाने कितनी बहनों ने अपने भाई। यह केवल स्वास्थ्य का सवाल नहीं, बल्कि इंसानियत का भी सवाल है।
युवाओं की पुकार: रोजगार और शिक्षा का मजबूत आधार
सीताराम यादव कहते हैं कि युवाओं की आंखों में सपने पलायन कर जाते हैं। दिल्ली, मुंबई, राजस्थान की फैक्ट्रियों में मजदूरी करते हाथ, शेरघाटी की जमीन को छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में भटकते हैं। वे मजबूर नहीं, बल्कि हालात के शिकार हैं। काश! अपने ही गांव में रोज़गार मिलता, तो हर त्यौहार, हर खुशियां, अपने ही घर में मनतीं।
शेरघाटी की बेटियां जो पढ़ना चाहती हैं, ऊंचा उड़ना चाहती हैं, उन्हें शहर जाना पड़ता है। मास्टर डिग्री की चाह, गांव की दहलीज पर ही दम तोड़ देती है। पर क्या यह सच्चाई बदल नहीं सकती? क्या यह सपने पूरे नहीं हो सकते?
सीताराम यादव कहते हैं कि उनका सपना किसी कागजी वादे में कैद नहीं है। उनका विज़न है कि हर गांव में पुल, हर बच्चे के लिए स्कूल तक पक्की राह, हर बीमार को समय पर इलाज, हर युवा को यहीं रोजगार। शेरघाटी को जिला बनाना केवल प्रशासनिक फैसला नहीं, यह यहां की आत्मा की पुकार है।
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नई सुबह का नेतृत्व: विश्वास की मशाल लेकर आगे बढ़ते कदम
सीताराम यादव एक प्रतिबद्धता के साथ कहते हैं कि शेरों की घाटी, अब रुकने वाली नहीं। इस बार नारा नहीं, संकल्प चाहिए। लड़ाई वादों की नहीं, बदलाव की है। उनका कहना है कि उनके हाथों में सिर्फ झंडा नहीं, बल्कि उम्मीद की मशाल है। वह मशाल जो हर अधूरी सड़क पर रोशनी देगी, युवाओं को नौकरी एवं शिक्षा का अवसर देगी, हर सूने आंगन में हंसी लाएगी और हर मजदूर के पसीने की कद्र करना सिखाएगी।शेरघाटी को एक नया इतिहास लिखना है, और उस इतिहास में हर गांव, हर बेटा, हर बेटी, हर मां-बाप का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज करना है। यही सीताराम यादव का वादा नहीं, इरादा है। |